संसार इच्छाओं का सागर है मनुष्य के अन्दर इच्छाओं की तो कोई कमी नहीं है ये इच्छाएं ही तो हमको अशांत करती रहती हैं !!
कहतें हैं कि " चाह पैसों से आनों में आती रही "
"चाह आनों से रुपया बनती रही "
"चाह रूपये से नोट बनती रही "
"चाह नोटों से कोठी बनती रही "
"चाह कोठी में मोटर मंगाती रही "
"चाह मोटर से होटल में जाती रही "
"चाह होटल में बोतल भी खुलती रही "
"चाह क्या क्या न करती कराती रही "
"चाह पाली जिन्होंने वो पीले हुए "
"चाह छोड़ी जिन्होंने रसीले हुए "
"चाह जर से लगी जी जरा हो गया "
"चाह हरि!! से लगी जी हरा हो गया "
"चाह उनकी हमें हमेशा चाहिए "
"और वो जो चाहें हमें तो फिर क्या चाहिए "
----------------!! प्रेम से कहो श्री राधे श्री राधे श्री राधे !!-------------------